मणिपुर हिंसा और केंद्र सरकार की भूमिका: अशांति पर राजनीतिक विवाद
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परिचय: मणिपुर, जो पूर्वोत्तर भारत का एक महत्वपूर्ण राज्य है, हाल के महीनों में जातीय हिंसा और अशांति का केंद्र बन गया है। इस हिंसा ने राज्य को गंभीर संकट में डाल दिया है, जिससे सैकड़ों लोग प्रभावित हुए हैं। इस संकट पर केंद्र सरकार की भूमिका और उसकी प्रतिक्रिया को लेकर देशभर में बहस छिड़ी हुई है।
हिंसा का कारण: मणिपुर में हिंसा की जड़ें जातीय और धार्मिक विभाजन में निहित हैं। मेइती और कुकी समुदायों के बीच बढ़ते तनाव ने राज्य में व्यापक हिंसा को जन्म दिया। मेइती समुदाय द्वारा अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा मांगे जाने पर कुकी और अन्य आदिवासी समुदायों ने इसका विरोध किया, जिससे संघर्ष की स्थिति पैदा हो गई। भूमि, शिक्षा, और सरकारी नौकरी में आरक्षण को लेकर दोनों समुदायों में गहरी असमानता की भावना थी, जिसने इस हिंसा को और बढ़ावा दिया।
हिंसा का प्रभाव: हिंसा के दौरान मणिपुर के कई इलाकों में आगजनी, लूटपाट, और हिंसक झड़पें हुईं। सैकड़ों लोगों को अपना घर छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा और सैकड़ों लोग मारे गए। स्कूलों, अस्पतालों, और अन्य सार्वजनिक सेवाओं पर भी इसका गहरा असर पड़ा। राज्य में इंटरनेट सेवा भी बंद कर दी गई ताकि अफवाहें और हिंसा न फैले।
केंद्र सरकार की भूमिका:
- निष्क्रियता का आरोप: विपक्षी दलों और मानवाधिकार संगठनों ने केंद्र सरकार पर मणिपुर हिंसा के दौरान निष्क्रियता बरतने का आरोप लगाया है। उनके अनुसार, हिंसा शुरू होने के कई हफ्ते बाद भी केंद्र सरकार ने राज्य में स्थिति को संभालने के लिए प्रभावी कदम नहीं उठाए।
- राष्ट्रपति शासन की मांग: विपक्षी दलों ने केंद्र सरकार से मणिपुर में राष्ट्रपति शासन लागू करने की मांग की है। उनका कहना है कि राज्य सरकार हिंसा को नियंत्रित करने में असफल रही है, और केंद्र सरकार को इस मुद्दे पर तुरंत हस्तक्षेप करना चाहिए।
- सरकार की प्रतिक्रिया: केंद्र सरकार ने इन आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि मणिपुर की समस्या जटिल है और राज्य सरकार को स्थिति संभालने का पूरा अधिकार है। सरकार ने सेना और अर्धसैनिक बलों को तैनात किया है और लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करने का दावा किया है। साथ ही, प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने हिंसा को रोकने और शांति बहाल करने के लिए राज्य सरकार के साथ मिलकर काम करने का आश्वासन दिया है।
राजनीतिक विवाद: विपक्षी दलों ने इस मुद्दे को संसद और मीडिया में उठाते हुए इसे राष्ट्रीय सुरक्षा और मानवाधिकारों का मामला बताया है। इसके अलावा, विपक्षी दलों ने केंद्र सरकार पर पूर्वोत्तर के प्रति उदासीनता का आरोप भी लगाया है। वहीं, सत्ताधारी दल ने इसे राज्य सरकार की जिम्मेदारी बताया है और कहा है कि केंद्र ने हर संभव सहायता प्रदान की है।